Answer for ज़री की कढ़ाई कैसी होती है
भारत का प्राचीन युग बहुत वैभवपूर्ण था। और उसी वैभव के कारण यहां के लोग ऐश्वर्यशाली थे, जिसके कारण ही वे सोने चांदी जैसी कीमती धातुओं से वस्त्रों को कढ़वा कर पहना करते थे। पूरे भारत में ही वस्त्रों की कढ़ाई में चांदी सोने के तारों का प्रयोग किया जाता था। कई कारीगर तो पतले व चौड़े बार्डर ही बार्डर बनाते थे जिनका प्रयोग दुपट्टों तथा साड़ियों पर किया जाता है। कई खानदानों में या राजघरानों में तो पर्दो व सोफा की शोभा भी इसी बार्डर से बढ़ती थी। ज़री की कढ़ाई को कारचोब, ज़री के भारी काम को जारदोज़ी तथा हल्के काम को कामदानी कहते थे।उपलिखित कढ़ाई की पद्धतियों तथा तरीकों को जानने के उपरान्त यह ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में वस्त्रों का इतिहास उस पर किया जाने वाला श्रम कितना प्रशंसनीय था। कढ़ाई के अद्भुत डिज़ाइन तथा उनमें प्रयोग किए जाने वाले रेशमी, सूती धागे अथवा ऊनी धागों के सम्मिश्रण से कपड़ों पर किया जाने वाला कार्य कितना प्रशंसनीय था। एक लेखिका जमीला ब्रजभूषण इस विषय पर अपने विचार प्रकट करती हई कहती हैं, “The Traditional Indian Pattern and Colour combination never fails to please the eye of the people of any Nation.” इस गौरवपूर्ण कार्यों की इतनी प्रशंसा होती है, उसके साथ कुछ लोगों का मत यह भी कहता है कि हमारी कढ़ाई की क्रियाओं पर विदेशी कढ़ाई का प्रभाव है। किन्तु जब प्रारम्भ से ही भारत के बने हुए वस्त्र बाहर जाते रहे हैं तो स्वयं सोचिए कि विदेशी कढ़ाई का प्रभाव भारतीय कढ़ाई पर आना सम्भव ही नहीं है जब कि भारतीय कढ़ाई का प्रभाव विदेशी कढ़ाई पर आ सकता है। लेकिन चाहे कोई कुछ’ भी क्यों न कहे, सोचें कि हमारा गौरवपूर्ण इतिहास है जो सब देखने वालों को प्रभावित किए बिना नहीं रहता है।