Answer for डिज़ाइन के क्या सिद्धान्त होते है

पोशाक ऐसी डिज़ाइन में बने जिसे देखकर लोग वाह-वाही कर उठे। क्योंकि पोशाक की डिज़ाइनिंग के त्रुटिपूर्ण तरीके कुछ ही दिनों में out of fashion कहलाने लगते हैं। परिधान डिज़ाइन करते समय अनुपात (Proportion), संतुलन (Balance), लय (Rhythm), अनुरूपता (Harmony), दबाव (Emphasis), संबल तथा आकर्षण केन्द्र आदि ऐसे scale हैं, अर्थात् ऐसे पैमाने हैं, जिनसे कोई भी व्यक्ति अपनी पोशाक या पहनावे का उचित मूल्यांकन कर सकता है। क्योंकि उपलिखित में से किसी एक की भी उपेक्षा हो जाने से पोशाक की सुन्दरता कम अथवा समाप्त हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पोशाक में उचित अनुपात हो, संतुलन विश्रामदायक हो, डिज़ाइन की लय ऐसी रोचक हो जो कि पहनने वाले के शरीर की विशेषताओं एवं गुणों को उभार कर प्रकट करने वाली हो। पोशाक के आकर्षण बिन्दु उसके सभी सजावटी सामान ऐसे प्रतीत होते हों जिससे पहनने वाले का व्यक्तित्व उभर कर सामने आये। इसके साथ ही यह परिधान मौसम के अनुकूल, रीति-रिवाजों के अनुकूल तथा परम्पराओं के अनुसार यदि हों तो और भी सोने पे सुहागा होगा अर्थात् उसमें और भी सौन्दर्य दिखाई देगा। और यदि परम्परागत पोशाकों में थोड़ा सा फेर-बदल करके बना दिया जाए तो नवीन में पुरातन का योगदान समाज में और भी सराहनीय होगा। जैसे कपास लिनन का स्थान धीरे-धीरे रासायनिक वस्त्रों के मिश्रण वाले रेशों ने ले लिया है यानि डेकरॉन, जेफरॉन तथा ऑरलॉन आदि नए मिश्रित रेशों के वस्त्र आ गए हैं, उसी प्रकार डिज़ाइन बनाने में भी नए पुराने का मिश्रण होने पर डिज़ाइनिंग में भी संजीदगी आ जाएगी। इसी के साथ ही साथ पाश्चात्य देशों की पोशाकों में भारतीय पोशाकों का मेल भी होने लगा है और समाज में पसन्द भी की जाने लगी हैं। भारतीय पोशाक यद्यपि साड़ी ब्लाउज़ है, किन्तु साड़ी के साथ जो ब्लाउज़ बनते थे अब टॉपलैस (Topless) या पतले महीन स्ट्रैप (Pearl strap) या कन्धों पर डोरी वाले ब्लाउज़ फैशन में आ गए हैं। इसी प्रकार लो बैक-नैक (Low back neck) के लेडीज़ शर्ट या ब्लाउज़ भी डिज़ाइन किए जाने लगे हैं।
संक्षेप में डिज़ाइन के रूप में यह ज्ञात होता है कि पाश्चात्य सभ्यता में टाइट पोशाकों का तथा अंग प्रत्यंग को उभार कर दिखाने वाला फैशन अधिक है जब कि भारतीय सभ्यता में अंगों को ढकने वाले वस्त्रों का फैशन था जिस पर अब दोनों के मिश्रण डिज़ाइन से यहां की पोशाकों में भी अंग प्रत्यंगों में खुलापन प्रारम्भ हो गया है। यह फिल्मों तथा टी.वी. सीरीयल से जनता में, समाज में रिवाज़ आया है। यही जनता की पसन्द है जिसे समय की मांग कहते हैं।

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