Answer for लखनऊ की कढ़ाई कैसी होती है ?

प्राचीन काल की यह कढ़ाई आधुनिक समय तक लोकप्रिय है। कारण यही है कि यह अति सुन्दर, छोटे टांकों से काढ़ी जाती है। इसे पहले पहल उल्टी कढ़ाई कहा जाता था। यह उल्टी ओर से मच्छी टांका के द्वारा काढ़ी जाती थी और सीधी तरफ उस धागे के रंग की परछाईं दिखा करती थी। अत: इसे शैडोस्टिच (Shadow stitch) भी नाम दिया गया था। प्रारम्भ में यह केवल सफेद धागों के प्रयोग द्वारा की जाती थी किन्तु अब इसमें रंगीन धागों का भी प्रयोग होने लगा है। इसको तीन प्रकार से काढ़ा जाता है – एक चपटी कढ़ाई, दूसरी गांठों वाली तथा तीसरी जालीदार। चपटे टांकों में मच्छी टांकों का प्रयोग करते हैं। जिससे फल पत्तियां, पक्षी आदि बनाते हैं। गाठों वाले डिज़ाइन में टांकों को गांठ के समान डबल स्टिच भरकर बनाते हैं जिससे गाठे उभरी हई दिखाई देती हैं। तीसरा, जालीदार बनाने के लिए महीन कपड़ों पर स्टिच को खींचते हैं और फंदा लगा कर बांध देते हैं जिससे जालीदार पत्ते या फल बन जाते हैं। यह तीनों इकट्ठे भी प्रयोग कर सकते हैं अथवा डिज़ाइन के आधार पर भी स्टिच प्रयोग होते हैं।

सिन्ध, कच्छ, काठियावाड़ की कढ़ाई :
सिंध के कढ़े हुए वस्त्रों पर पंजाब और कच्छ का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। पंजाब की फुलकारी तथा चेन स्टिच के मिश्रण से तैयार सिंध कढ़ाई का अपना ही सौंदर्य होता था। प्रायः इस कढ़ाई में चेन टांकों का ही अधिक प्रयोग होता है। इसी टांके से लंहगे की चोली तथा लंहगे के बार्डर को भी चेन टांके से काढ़ते हैं। नमूनों में प्रकृति तथा अन्य सभी दृश्यों का समावेश होता है। कढ़ाई के लिए सिल्क के धागे तथा सूती धागे दोनों प्रकार के प्रयोग होते हैं। इस कढ़ाई की विशेषता यही है कि इससे कढ़ाई करके गरारा, चोली, लंहगे तथा अंगरखे सजाए जाते हैं। इस कढ़ाई के बीच में शीशा वर्क भी होता है जिससे इसकी चमक और भी बढ़ जाती है।

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