Answer for लिनन कों कैसे पीसा जाता है

इसमें प्राकृतिक गुण होने के कारण पसीना सोखने की अद्भुत क्षमता होती है। पसीने से एसिडिटी होने के कारण शीघ्र अतिशीघ्र वस्त्र का धुलना अनिवार्य ही है। इस प्रकार उपलिखित लिनन के उद्गम, इतिहास व विशेषताएं हैं जिनसे हर छात्र को लाभ उठाना चाहिए। ऊन (Wool) उद्गम एवं प्राचीन इतिहास ऊन एक प्राकृतिक किन्तु प्राणी जन्य रेशा है। इससे बने वस्त्रों का प्रयोग सर्दी के मौसम में किया जाता है क्योंकि यह एक गर्म रेशा है। भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीन काल से ही सुंदर वस्त्रों का निर्माण होता आया है। पुरूष व स्त्रियां शुरू से ही “शाल” ओढ़ने के आदी हैं। यह एक सम्माननीय वस्त्र है। अत्यन्त प्राचीन काल में ऋषि मुनि भी जंगलों में शरीर को ढकने के लिए शीत ऋतु में पशुओं की खालों का प्रयोग किया करते थे। कुछ समयोपरान्त भारत में ही बहुत सुन्दर ऊनी वस्त्र बनने लगे थे, लेकिन आज वाला रूप नहीं था। एक दम प्रारम्भिक युग में पशुओं की खाल ही सर्दी से बचाने का एक मात्र सहारा थी। जब आखेट करके पशुओं को भोजन हेतु लाया जाता था तो उसकी बालों सहित खाल उतार कर, सुखा कर, ओढ़ने व बिछाने में प्रयोग की जाने लगी थी। किन्तु मानवमन में यह विचार आया कि खाल के बिना केवल बालों को पशुओं के ऊपर से यदि काट कर प्रयोग में लाया जाए तो बाल हमेशा मिल सकते हैं, जब तक पशु जिन्दा है। और उन बालों को सटाकर फेल्टिंग (felting) करके वस्त्र बनाने का विचार आया क्योंकि बालों में दबाव व ताप से आपस में सट जाने का गुण होता है। तभी से बालों को आपस में सटाकर, फंसाकर और जमाकर (felt) वस्त्र बनाना शुरू हुआ। तब मानव ने महसूस किया कि बाल सहित खाल उतार कर वस्त्र बनाने से यह अधिक सुविधाजनक है और जीवितावस्था में बाल उतार कर मनुष्यों की ऊनी वस्त्रों की पूर्ति करना अधिक सरल है। भारत के साथ ही साथ यूरोप में तथा इंग्लैंड में भी श्रेष्ठ ऊनी वस्त्रों पर काम होना प्रारम्भ हो चुका था। वहां के वस्त्र भी संसारभर में प्रसिद्ध थे। दूसरे वह शीत प्रधान देश था अतः नित्य नई-नई तकनीकें निकलती रहती थीं। 13 वीं शती तक यूरोप में स्पेन में मेरिनो-वूल (marino-wool) के नाम से विशेष ऊनी कपड़े बनते थे जो सारे यूरोप में प्रसिद्ध थे। धीरे-धीरे मेरिनो भेड़ को अलग-अलग देश अपने यहां ले जाकर वहां भी मेरिनो वूल की किस्म बनाने लगे थे। आजकल तो विश्व के कई देशों में मेरिनो वूल का काम चल रहा है। भारत में मुगलों ने भी इस उद्योग को बढ़ाने में रुचि दिखाई। भेंट आदि दूसरे देशों में भेजने से भारत के कश्मीर में बने पश्मीना शॉलों का नाम बहुत ऊंचा हुआ। पश्मीना यूरोप के मेरिनो से भी सुन्दर शॉल हैं। ये अत्यन्त हल्के व सूक्ष्म तथा बहुत गर्म शॉल होते हैं। कश्मीर के सूक्ष्म, महीन, पश्मीना शॉलों जैसा काम कहीं भी नहीं होता था। अंग्रेजी युग में इस उद्योग में अवनति होना शुरू हो गया था। किन्तु फिर से कश्मीरी शॉल की आज भी उसी तरह मांग है

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