Answer for Indian Embroidery क्या होता है ?

भारत एक ऐसा देश है जहां समृद्धि को देख कर, सुन कर बाह्य देशों के राजाओं के मन में यहां की दौलत हड़पने के लिए मुंह में पानी आता था। फलतः यहां पर वे आक्रमणकर्ता बन कर आए और बस गए। फलत: जो यहां की कारीगरी देखी उस पर मोहित भी हुए तथा हमारी कारीगरी में उनकी कारीगरी का मिश्रण हुआ। चाहे जितना भी मिश्रण हुआ है, फिर भी हमारी कढ़ाई कला (कसीदाकारी) में भारतवासियों की सांस्कृतिक परम्पराओं का प्रतिबिम्ब सदैव ही होता रहा है। अत: कढ़ाई के कुछ पारम्परिक नमूनों तथा रिवाज़ के अनसार कसीदाकारी के विषय में कुछ जानेंगे।

पंजाबी फुलकारी :
यह पंजाब की कढ़ाई का एक विशेष नमूना है। विवाह के शुभ अवसर पर कन्या के लिए दुपट्टा बनाना माता का पुत्री के प्रति प्रेम का द्योतक माना जाता है। इसमें टांकों का क्रम ऊपर से लम्बा, नीचे से छोटा रखा जाता है। प्राय: यह कढ़ाई कच्चे रेशम के रंग बिरंगे धागों से की जाती है। इसमें प्रायः ज्यामितीय नमूने यानि squares का अधिक प्रयोग होता है। ज्यामितीय डिज़ाइनों के साथ ही साथ फूल पत्ते भी इसमें बनाए जाते हैं। नमूनों में कल्पना के साथ-साथ मौलिकता (Originality) का भी अंश झलकता है। नमूनों में चांद, सूरज, सागर, तरंग, कंठद्वारों का भी इसमें समावेश किया जाता है। इस कढ़ाई कला में शीशों का भी प्रयोग किया जाता है। शीशों को इस कढ़ाई में बटन होल स्टिच से टांक देते हैं और चारों ओर फुलकारी से इसको सजाते हैं। पहले पहल यह कार्य सिन्ध देश में होता था। वहां से पंजाब में शुरू हुई और धीरे-धीरे यह गुजरात में भी पारम्परिक शैली में बनने लगी। गुजरात से यह कच्छ प्रान्त में भी पहंची। वहां की अपनी शैली से इसका मेल करते हुए यहां हाथी, मोर, तोता आदि डिज़ाइन भी प्रायः वस्त्रों पर फुलकारी में आ गए। वहां पर अधिकतर चेन स्टिच में काम होता था। उसी के साथ-साथ हैरिंग बोन स्टिच से बार्डर बनने लगे थे। पंजाब में आजकल फुलकारी कला का फिर से पुनरुथान हो रहा है। अब कुछ महिलाओं ने नये तरीके से दुपट्टे बनाने शुरू किए हैं, अर्थात चौकोर पीस कढ़ाई करके और स्टाइलिश (Stylish) तरीके से जोड़ कर दुपट्टे व साड़ियां बनाने का प्रचलन शुरू किया है। इससे लाभ यह है कि छोटे-छोटे टुकड़ों को उठाने में तथा कढ़ाई करने में वज़न नहीं होता और न ही जल्दी गन्दे होते हैं। कुछ प्राचीन कथाओं के आधार पर भी ऐसे डिज़ाइन बनाने शुरू किए हैं जिनसे दुपट्टे साड़ियां और भी जीवंत हो उठते हैं।

बंगाल का कांथा का काम (Kantha work of Bengal):
प्रारम्भ में कांथा के काम से पुराने धोतियों में कुछ भी पुराने कपड़े भर कर कुशन के या आसन के आकार का कपड़ा, छोटे कच्चे टांकों द्वारा अर्थात परसूज डाल कर तैयार करते थे, जो पुराने कपड़ों का सदुपयोग करना होता था। धीरे-धीरे यह काम रंग बिरंगे धागों के द्वारा तथा कुछ भी चित्रण किए हुए दृश्यों (Scenery) को परसूज के टांकों के द्वारा कढ़ाई किया जाने लगा। टांके सुन्दर व सूक्ष्म होते थे तथा वस्त्र भी कला के उत्कृष्ट नमूनों के रूप में तैयार होते थे। बंगाली महिलाओं का किफायत के लिए किया गया कार्य आज एक कला के रूप में प्रसिद्ध हो गया है।

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